मोदी सरकार के 100 दिन होने को आये. इस विषय पर तथ्यों पर आधारित आलेख को थोड़ा व्यंगात्मक लहजे में कहने का प्रयास कर रहा हूँ. भक्तगण मित्र भी उसी भावना से लें!
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी हमेशा से कहते रहे हैं कि मुझे सिर्फ विकास की राजनीति करनी है, मैं बदले की राजनीति में यकीन नहीं रखता. मगर उनके प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद से ही जिस तरीके से यू.पी.ए. सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को चुन-चुन कर परेशान किया गया और किया जा रहा है तथा संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति की मर्यादा को तार-तार किया गया, इससे तो यही लगता है कि मोदी की कथनी और करनी में कोई समानता नहीं है.
श्री मोदी कहते हैं कि वो सिर्फ विकास की राजनीति करते हैं. हां, वे विकास की राजनीति तो करते हैं, पर आम आदमी के विकास की राजनीति नहीं बल्कि अपने दल के नेताओं का विकास करने की राजनाति में जुटे हैं. उनका एकमात्र एजेंडा है कि साम, दाम, दंड और भेद, किसी भी तरीके से अपनी पार्टी के रिटायर्ड नेताओं को राज्यपाल के पद पर आसीन करवाना, ताकि पार्टी पर उनकी पकड़ और मजबूत हो. इसके लिए उन्हें प्रशासनिक और राजनीतिक हथकंडा अपनाने से उन्हें कोई गुरेज नहीं है.
कई बार मंच से श्री मोदी ने महंगाई घटाने और भ्रष्ट्राचार मिटाने का सपना आम लोगों को दिखाया है. सत्ता पर उनके आसीन हुए 100 दिन पूरे होने को आए मगर महंगाई से किसी को भी राहत मिलती नहीं दिख रही है. रही बात भ्रष्ट्राचार के खात्में की तो उनकी सरकार भ्रष्ट्राचारियों का साथ देती नजर आ रही है. एम्स के संजीव चतुर्वेदी मामले से तो यही लगता है कि उनकी सरकार ईमानदार अधिकारियों को ही हटाने की मुहिम में लगी है. फायदा सिर्फ करीबी नेताओं और कॉरपोरेट घरानों को पहुंचाया जा रहा है (crony-capitalism).
जिन युवाओं के समर्थन से मोदी प्रधानमंत्री की गद्दी पर विराजमान हुए, आखिर कब बेरोजगार युवाओं की सुध लेंगे? देश के युवा दर-दर भटकने को मजबूर हैं पर मोदी हैं कि गुजरात के ‘विकास’ की ‘खुशफहमियों’ से बाहर निकलना ही नहीं चाहते. आखिर उन्हें कब एहसास होगा कि अब वे प्रधानमंत्री हैं, गुजरात के मुख्यमंत्री नहीं. आखिर पूरे देश को ‘विकास’ की झांकी कब दिखाएंगे!
मोदी कहते हैं कि लोकतंत्र में उनकी गहरी आस्था है. मगर अफसोस, चाहे-अनचाहे वे लोकतंत्र की जड़ें खोदने में ही लगे है. क्या बगैर विपक्ष के एक स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना की जा सकती है? मोदी हैं कि उन्हें विरोध के स्वर पसंद ही नहीं हैं. अपने जयकारे की उन्हें इस कदर आदत लग चुकी है कि सरकारी कार्यक्रमों में भी दूसरे दलों के मुख्यमंत्रियों की उनके सामने हूटिंग होती है और वे मौन रहते हैं.
मत भूलिए, मोदी जी! ये लोकतंत्र है. निंदक को पास रखने में ही भलाई है. शिकायत सुनने और विरोध सहने की आदत डालने होगी. वरना जिस जनता ने सर पर बिठाया है, वो गिराने में भी वक्त नहीं लगाती है. हाल के उपचुनावों के नतीजों से जनता का मूड भांप लें और जो सपना दिखाया है, उसे पूरा करने के लिए कुछ काम करें.